Sunday, November 6, 2016

भारत के पत्रकार जी को एक पत्र

सेवा में
भारत के पत्रकार जी
आदरणीय महोदय ( मित्र इसलिए नहीं लिख रहा कि आपकी प्रतिष्ठा ख़तरे में पड़ जाएगी )
यह पत्र बेहद असमंजस में, डरते डरते लिख रहा हूँ कि कही आप अर्थ का अनर्थ न समझ लें। उद्दवलित हूँ थोड़ा संकोच में भी हूँ इसलिए विचारों का प्रवाह भी ग़दमड है , शायद आज कल लिखे जाने वाले ओपन लेटर के स्तर का भी नहीं है । और मोबाइल की बोर्ड पर इतना बड़ा पत्र लिखने का अभ्यास भी नहीं है इसलिए कहीं कहीं आलस्य में कम शब्दों में अधिक लिखने की कोशिश भी की है जिसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।
आपके परिवार के वरिष्ठ सदस्य श्री राजकमल झा ने कहा कि जिसे सरकार अच्छा पत्रकार माने उसे नौकरी से निकाल देना चाहिए। मैं तत्काल विकी पीडिया पर श्री झा के बारे में और जानने निकल पड़ा । काफ़ी पढ़े लिखे अंग्रेजिदा पत्रकार उपन्यासकार हैं । विदेशों में भी काफ़ी धूम है इनकी । एकाध अच्छी विदेशी  यूनिवर्सिटी में गेस्ट फ़ैकल्टी में शुमार हैं। लेकिन इनकी पत्रकारिता भी उसी अजर अमर सिद्धांत पर चल रही है कि कुत्ता आदमी को काटे तो ख़बर नहीं लेकिन आदमी कुत्ते को काटे तो ख़बर है । जिस Facebook और Twitter की पीढ़ी को ज्ञान बाँट रहे हैं झा साहब , उसको बेहद ख़तरनाक रास्ता दिखा रहे हैं। ये रास्ता है पूर्वाग्रह का , पक्षपात का । क्यों ?बिना किसी ठोस आधार के सरकार के ख़िलाफ़ होना पक्षपात नहीं है ? झा साहब जैसे महान अग्रजों के कारण नई पीढ़ी के अच्छे अच्छे पत्रकार सरकार के पक्ष में , उसकी अच्छी नीतियों के समर्थन में लिखने से डरते हैं , कारण एक मिनट में लेबल लग जाएगा कि बिक गया ये। पूरे भारत में सरकारी तंत्र जो जन्म से लेकर क़ब्र तक इंसान के साथ होता है क्या वास्तव में इतना ख़राब होता है ? अपवाद स्वरूप कुछ ख़बरों को छोड़ दें तो सारी ख़बरें सिस्टम की कमी पर होती हैं। अच्छी बात है कमियाँ है तो छापिए लेकिन सकारात्मक और अच्छे कामों को इसलिए मत छोड़ दीजिए की लोग कहेंगे इसकी सेटिंग हो गयी या इसे पैसा मिल गया । लेकिन जब राजकमल झा जैसे लोग खुले आम कह रहे हैं कि पत्रकार को सिर्फ़ सरकार के विरुद्ध होना चाहिए तो बात गले नहीं उतरती। क्यों सरकार में काम कर रहे लोग समाज का हिस्सा नहीं है ? उनका हौसला बढाना पत्रकार की ज़िम्मेदारी नहीं है ? अब दूसरे पहलू पर आइए । निष्पक्षता कहा है आजकल । हर पत्रकार की एक सही ग़लत की अपनी परिभाषा होती है । कुछ फ़्लेक्सिबल होते हैं जो तथ्यों की कसौटी पर अपनी मान्यता को कसते हैं कुछ बिलकुल ज़िद्दी होते हैं जो अपनी मान्यताओं से बिलकुल नहीं डिगते। जो पत्रकारिता जगत से जुड़े हैं वो इस बात को भली भाँति जानते है की कैसे अधिकारी और नेता के प्रति व्यक्तिगत पूर्वाग्रह उसके सही मायने में किए अच्छे कामों को भी ड़स लेते हैं। मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी है सरकार के अच्छे कामों को न्यूज़ डेस्क पर यह कहकर डस्टबिन में डाल देते हैं कि ये तो इनका काम है ही , तनख़्वाह मिलती है इसके लिए। लेकिन ऐसा करके आप जनता और सरकार के बीच भरोसे का एक सम्बंध जोड़ने का मौक़ा भी फेंक देते हैं। क्या रोज ख़बर देखने और पढने वाले को आशा और विश्वास की रोशनी दिखाना चमचागिरी कहा जाता रहेगा ?
मज़े की बात ये है कि जिस आदर्शवाद और सिद्धांत के थोथे पैरडायम पर हम दुनिया भर की बहस करते है ९९ प्रतिशत मामलों में यह असली वजह नहीं होती। सरकार से सवाल पूछिए ज़रूर पूछिए लेकिन जवाब को सम्पादित मत करिए , पिछले पेज पर मत छापिए । वही रखिए जहाँ सवाल था और जनता को भी डिसाइड करने दीजिए । न्यूज़ और व्यूज़ को मिक्स मत करिए । सरकारी अधिकारी कर्मचारी नेता भी आपके ऑडीयन्स , लिसेनर और रीडर हैं । इसी समाज का हिस्सा हैं। आप की सहायता से हम भी अपने अधिकारो की लड़ाई लड़ते है । हम भला एक कमज़ोर और ख़ामोश मीडिया क्यों चाहेंगे ? नहीं सर । आप इस लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तम्भ है । और मजबूत हों हमारी दुआ है लेकिन आपकी मज़बूती बाक़ी स्तम्भों को गरिया कर उनसे आवश्यकता से ज़्यादा दूरी बनाकर नहीं आएगी। सवाल पूछिए लेकिन अगर हम उनका निर्धारण नहीं कर सकते तो आप का कर्तव्य है की हमारे पसंद के सवाल भी आप ही पूछिए । झा साहब से मत डरिए कि वो आपको नौकरी से निकाल देंगे ।
अंत में भूल चूक की माफ़ी के साथ
आपका अपना
एक लोक (सरकारी )सेवक

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